यौवनोन्माद की बात छोड भी दें तो भी धीर गभीर जनों से अपनी प्रियतमा के लिये ’हृदयेश्वरी’ सम्बोधन सुनकर यकायक ऐसा लगता था कि हो न हो यह उरोभागस्थ रक्ताभिसरणकार्य करने वाले शरीरावयवविशेषमात्र नही हो सकता। बस यही चिन्तन शोधपत्र के रूप में प्रस्तुत हो सका।
शोधपत्र में हृदय की उक्त अवधारणा के अतिरिक्त मस्तिष्क (चित्त) के रूप में हृदय को प्रस्तुत कियाद गया है। इसके साथ ही वेद , उपनिषद, दर्शन, चरकसंहिता महाभारत गत वचनों को उद्धृत किया गया है। अन्त में ’ईश्वरी’ पद की चर्चा मनोविज्ञान के धरातल पर किया गया है।
निष्कर्षतः यह लेख हृदय के पारम्परिक अर्थ को तिरस्कृत कर चित्त रूप स्थापित करता है, और प्रियतमा (पत्नी आदि) को नेतृरूप प्रदान करता है।
आयुर्विज्ञान एवं मनोविज्ञान का गहन अध्ययन न होने के कारण स्खलन स्वाभाविक है, जिसे सुधी जन क्षमा करेंगे एवं त्रुटियों से अवगत कराने का प्रयास करेंगे।
अन्त में संदर्भ सूची दी गयी है जो मूल तथ्य तक पहुंचने मे आपकी मदद करेगी।
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